जो भी ग़म गुसार बन के आता है िदल के ज़ख्म को और गह्रा कर जाता है नग्मा-ऐ-इश्क धुंधला पड़ जाता है हर ख्वाब अधूरा रह जाता है जीने की तमन्ना मैं 'ंपिंॅडत' जेये जाता है उस कािफर का खून-ऐ-जीगर क्यों नहीं पाता है तगाफुल करके उसका क्या जाता है बस ग़म-ऐ-इश्क और बडा जाता है नफज़ दर नफज़ जूनून उबल जाता है वहशत की हद लांघना चाहता है ज़मीर पर िफर एक खेल खेल जाता है उसका नग्मा-ऐ-इश्क याद करा जाता है